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सेवानिवृत आईपीएस सुरेश कुमार शर्मा की कलम द्वारा माँ की स्मृति और जीवन का सत्य”

Posted on March 1, 2025

नई दिल्ली 1 मार्च।
सुनील कुमार जांगड़ा.

लेखक एवं पूर्व आईपीएस सुरेश कुमार शर्मा की कलम द्वारा मां की स्मृति और जीवन का सत्य पर आधारित विशेष अंश: उन्होंने लिखा कि उस दिन बहुत लम्बी यात्रा के बाद सुबह 4:00 बजे मैं घर पहुँचा। पहुँचते ही द्वार खटखटाया तो पत्नी निशा ने भरी नींद में आकर द्वार खोला, और मेरे अंदर प्रवेश किए बिना ही पलट कर अंदर चली गई। मुझे चाय की इच्छा थी। उससे ये कहना था। पर कह नहीं पाया क्योंकि वो सोने जा चुकी थी। मैंने द्वार बंद किया और अंदर कमरे में आकर अपना सामान एक तरफ रख कपड़े बदलकर पलंग पर लेट गया।*

स्वयं से रसोई में जाकर चाय बनाने की इच्छा नहीं हुई। निशा बच्चों के साथ जाकर सो गई। ना उसने मुझसे कुछ पूछा और ना ही मैंने कुछ कहा।

इस तरह हमारी भेंट अधिकतर होती थी। या यूँ कहें कि सप्ताह में दो-तीन बार होती थी। मेरा काम मार्केटिंग का था इसलिए अधिकतर मैं रात को लेट आता था। निशा भी इन सब की व्यस्त हो चुकी थी इसलिए उनींदी आकर दरवाजा खोलती थी और फिर कमरे में जाकर सो जाती थी। आखिर उसे सुबह शीघ्र भी उठना होता था। बच्चों को स्कूल भेजना, घर के काम, बाजार के काम, ऐसे बहुत से काम होते थे उसके पास।

पर आज मुझे नींद नहीं आ रही थी। आज माँ की याद आ रही थी, जो अभी सात महीने पहले ही स्वर्ग सिधारी थी। जब तक माँ थी, दरवाजा माँ ही खोलती थी। बहू को उन्होंने कभी इसके लिए व्यथित नहीं किया।

बड़ी सीधी थी मेरी माँ, कुसुम। कम में भी प्रसन्न रहती थी। पर माँ की अपनी विशेषता थी। मैं जब भी लेट आता था तो वो ही उठकर दरवाजा खोलती थी। और वो ये प्रतीक्षा नहीं करती थी कि मैं अंदर आकर दरवाज़ा स्वयं बंद करूंगा। जब तक मैं अंदर ना आ जाता, दरवाजे पर ही खड़ी रहती। मेरे अंदर आने के बाद दरवाजा भी वो स्वयं ही बंद करती थी। और फिर ये अवश्य पूछतीं थी

“राजीव, थक गया क्या? चाय पीएगा?”

कभी-कभी मैं ना कह देता था। पर कभी-कभी जब हाँ कहता था तो वो बहू को आवाज नहीं देती। बल्कि स्वयं रसोई में जाकर मेरे लिए चाय अवश्य बना कर लाती थी।

जब तक मैं चाय पी रहा होता था तब तक वो मेरे पास ही बैठी होती थी। कहती कुछ भी नहीं थी। बस चुपचाप बैठी होती थी। चाय पीकर मैं कप टेबल पर रखता था और अपने कमरे में आकर सो जाता था। वो भी अपने कमरे में जाकर सो जाती थी। बस ऐसी ही हमारी भेंट होती थी।

पिताजी थे नहीं। माँ ने ही मेरा लालन पालन किया था। बचपन में मैं उनसे बहुत बातें करता था और वे मेरी हर बात सुनती थी। पर विवाह के बाद ये सब कम होता गया। और जैसे-जैसे समय बढ़ता गया, हमारी भेंट मौन ही होती थी। समय के अभाव में या यूँ कहें कि विवाह के बाद अपनी पत्नी पर उनका कर्तव्य डाल मैं निश्चिंत हो चुका था। इसलिए कभी उन्हें समय नहीं दे पाया।

आज भी मुझे याद है। कई बार वे मुझसे बोलती रहती थी। पर मैं उसे ‘हाँ’ और ‘हूँ’ में उत्तर देता रहता था। शायद मैं उसकी बात सुनता भी नहीं था। पर फिर भी वो प्रसन्नता पूर्वक मुझसे बातें करती थी। ये अलग बात है कि मुझे तो ये भी याद नहीं कि मैंने अंतिम बार उनसे जी भर के कब बात की थी। पैसा कमाने की दौड़ में मैं उनको काफी पीछे छोड़ चुका था।

जब वे बीमार हुई थी, तब भी मैं उसके साथ नहीं था। मैंने निशा को पैसे देकर अपने कर्तव्य उसे दे दिया था। निशा ही उनको लेकर अस्पताल दौड़ती थी। वो कई बार कहती भी थी कि कुछ देर माँ के साथ तो बिता लो। पर मुझे तो पैसा कमाना होता था। क्योंकि मुझे मार्केट संभालना होता था। आखिर जीवित रहने के लिए उपार्जन भी आवश्यक है। परिवार को पालने के लिए पैसा ही तो चाहिए। बस यही मेरी सोच रही।

जब वे अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी, उस दिन भी मैं उसके पास नहीं था। मैं किसी जरूरी मीटिंग में गया हुआ था। निशा ने वीडियो कॉल भी लगाया। शायद माँ मुझसे बात करना चाहती थी, मुझे देखना चाहती थी। पर मैंने कॉल रिसीव ही नहीं किया। क्या करता मीटिंग में जो था। मेरी भी अपनी विवशता थी। आखिर पैसा और पद्दोन्नति भी बहुत आवश्यक है।

पर आज मैं ये सब क्यों याद कर रहा हूं। अचानक माँ कैसे याद आ रही थी। आज इतने दिनों बाद मैंने ट्रेन से यात्रा की थी। नहीं तो मैं बस से या कंपनी की कार से ही यात्रा करता हूँ।

हालाँकि मेरा रिजर्वेशन था। पर आज मीटिंग इतनी लंबी गई की काफी समय लग गया। मैं दौड़ा-दौड़ा फिर भी बस स्टैंड तक पहुंचा लेकिन तब तक बस रवाना हो चुकी थी। सोचा कोई दूसरी बस मिल जाएगी पर दुर्भाग्यवश वो भी नहीं मिली।

तब किसी ने कहा कि कुछ देर बाद रेलवे स्टेशन से ट्रेन रवाना होने वाली है जो आपको आपके गंतव्य तक पहुंचा देगी। बस फिर क्या था। मैंने ऑटो पकड़ा और सीधे रेलवे स्टेशन पहुंचकर टिकट लिया। अब रिजर्वेशन तो कहाँ से हो। सो मैंने जनरल में टिकट लिया और धक्का मुक्की के बीच ट्रेन में पहुँच गया।

पर सबसे बड़ी जीत मेरी तब हुई, जब मुझे खिड़की के पास वाली सीट मिल गई। खिड़की के पास वाली सीट पर बैठकर मैं अपने आप को बड़ा विजेता समझ रहा था। यहाँ तक कि सीट के पास वाली फर्श को भी मैंने अपना सामान रख कर अपने कब्जे में कर लिया। ताकि आराम से बैठ सकूँ। ट्रेन में काफी भीड़ थी। इसलिए उधर ना देख कर मैं खिड़की के बाहर स्टेशन के नजारे देखने लगा।

तभी अचानक ट्रेन में से ही आवाज आने लगी,

“अरे उधर कहाँ जा रही है? अपने बेटे को संभाल। दिख नहीं रहा तुझे भीड़ है यहा। पता नहीं कैसे-कैसे लोग ट्रेन में सफर करने के लिए चढ़ जाते हैं”

“अरे ऐसे बेटे को तो घर पर रखती। कहाँ लेकर घूम रही है। दिख नहीं रहा है क्या तुझे हम खड़े हुए हैं। स्वयं के लिए जगह नहीं है, तुझे जगह कहाँ से दें”

“नहीं नहीं, मेरे बच्चों के पास बैठाने की आवश्यकता नहीं है अपने इस बेटे को। इसका क्या भरोसा, मेरे बच्चों को नुकसान पहुँचा दे तो”

मैं भी जानने की कोशिश करने लगा कि आखिर हो क्या रहा है। तभी भीड़ को चीरती हुई एक चालीस-पैंतालीस साल की औरत अपने तेरह-चौदह साल के बेटे को गोद में उठाए वही आ धमकी। देखने में निम्न मध्यम वर्गीय लग रही थी। सस्ती सी कॉटन की साड़ी पहन रखी थी। सिर पर पल्लू ले रखा था। वही वो तेरह-चौदह साल का किशोर लड़का जो अपनी पूरी हाइट ले चुका था मंदबुद्धि प्रतीत हो रहा था।

इतने बड़े बेटे को अपनी गोद में उठाए वो मेरे पास आकर खड़ी हो गई और मुझसे बोली,

“भैया जी अगर बुरा ना मानो तो मैं अपने बेटे को यहां नीचे फर्श पर बैठा लूँ। कोई भी सीट नहीं दे रहा है। यहाँ तक कि हमें अपने पास भी खड़े होने नहीं दे रहा है।”

मैंने उसे ऊपर से नीचे तक घूर कर देखा और फिर उसके बेटे की ओर। लेकिन उसने बोलना जारी रखा,

“बस अगले स्टेशन पर ही उतरना है मुझे। इतनी देर कैसे इसे गोद में लेकर खड़ी रहूँगी। इसे फर्श पर बैठा दूँगी तो थोड़ी देर मुझे भी आराम मिल जाएगा। पंद्रह-बीस मिनट की बात ही है भैया जी। फिर तो मैं इसे लेकर उतर जाऊंगी।”

पता नहीं क्यों, मस्तिष्क तो ‘हाँ’ नहीं कर रहा था। पर क्या सोचकर मेरा हाथ अपने आप ही सामान की तरफ चला गया। और मैंने अपना बैग उठाकर गोद में रख लिया। ये देखकर उसने अपने बेटे को वहाँ फर्श पर बैठा दिया और स्वयं भी उसके पास फर्श पर ही बैठकर अपनी साड़ी के पल्लू से अपने चेहरे पर आए पसीने को पोंछने लगी।

तभी उसके बेटे ने उसके कंधे पर अपना सिर रख दिया। ये देखकर उसने उसे दुलार करते हुए कहा,

“बस बेटा, थोड़ी देर में पहुँच जाएंगे। मेरा प्यारा बेटा, तब तक चुपचाप बैठेगा।”

उसने भी हाँ में सिर हिलाया और अपनी मां की आज्ञा मानकर चुपचाप बैठ गया। मैं दोनों की क्रियाओं को बड़े ध्यान से देख रहा था। मन में प्रश्न चल रहे थे कि इतने बड़े बेटे को जो मानसिक तौर पर बीमार है गोद में उठाकर अकेली क्यों घूम रही है?

इसके साथ घर का कोई व्यक्ति क्यों नहीं है? ये अकेली कैसे संभालती होगी इसे?

तभी उस स्त्री की दृष्टि मुझसे टकराई। जिससे मैं झेंप गया। मेरे मन में चल रहे सवालों को समझ कर उसने कहा,

“ये मेरा बेटा है भैया जी। थोड़ा बीमार है। पर किसी को व्यथित नहीं करता। पर फिर भी पता नहीं क्यों लोग इसको देखकर डरते हैं। कहते हैं कि यह मंदबुद्धि है। इसे अपने पास भी नहीं बिठाते।”

“तुम इसका इलाज क्यों नहीं कराती हो?” अचानक मेरे मुंह से निकल गया।

“इतना पैसा कहाँ है भैया जी। हम तो रोज कमाते हैं तो खाते हैं। हमारे पास इलाज कराने के पैसे कहाँ।”

“तो तुम्हारे साथ परिवार का कोई सदस्य क्यों नहीं है। इसे तुम अकेले ही संभाल रही हो?” पता नहीं क्यों मैं भी सवाल पर सवाल किए जा रहा था।

“भैया जी कहने को तो पूरा परिवार है। सास, जेठ, जेठानी, उनके बच्चे, पति सब हैं। पर इसकी देखभाल के लिए कोई नहीं। शादी के पूरे दस साल बाद हुआ था ये। वो दस साल मैंने कैसे निकाले थे, मेरा जी ही जानता है। बांझ बोल-बोल कर दुनिया भर के ताने मारे थे उन लोगों ने। जीना दुर्भर कर रखा था मेरा। पर मेरा पति मेरे साथ था। मंदिर-मंदिर भटकी थी मैं एक संतान के लिए। तब जाकर इसका चेहरा देखना हुआ था मुझे। पर जब घर वालों को ये पता चला कि मेरा बेटा…”

बोलते-बोलते वो चुप हो गई। आंखों में आँसू आ गए। अपने पल्लू से अपने आँसू को पोंछते हुए बोली,

“अनाथ आश्रम छोड़कर आने के लिए कह दिया था उन्होंने। इस बार तो पति ने भी साथ दिया उनका। पर ऐसे कैसे अनाथ आश्रम छोड़ देती भैया जी? आखिर इसे जन्म दिया है मैंने। ये तो भगवान का प्रसाद था मेरे पास, जिसने मुझे माँ होने का सौभाग्य दिया था। बस लड़ पड़ी मैं भी उन लोगों से। अब कोई कुछ नहीं कहता मुझे। पर हाँ, इसकी देखभाल कोई नहीं करता। मैं इसे अपने साथ ही फैक्ट्री ले जाती हूँ और अपने साथ ही वापस ले आती हूँ। ये किसी को व्यथित नहीं करता इसलिए फैक्ट्री वालों ने भी मना नहीं किया इसे लाने के लिए।”

“इतनी शक्ति कहाँ से आ जाती है तुम में? देख रहा था कि तुम ही इसे गोद में उठा कर ला रही थी। कठिनाई नहीं होती तुम्हें?”

“माँ हूँ भैया जी। अपने बच्चों के लिए तो दुनिया से लड़ जाऊँ। आप तो हिम्मत की ही बात कर रहे हो। एक माँ अपने बच्चों के लिए क्या नहीं कर सकती। बच्चे अपनी माँ को भूल जाए, पर माँ अपने बच्चों को कभी नहीं भूलती।”

उसके शब्दों ने मुझे नींद से जगा दिया। शब्द नहीं थे, एक करारा थप्पड़ था जो सीधे मेरे गाल पर आकर लगा था। मेरी माँ ने भी तो मुझे पिताजी के जाने के बाद पाला था। सही तो कह रही थी वो। मैं अपनी माँ को भूल गया पर माँ अंतिम समय भी मुझे ही याद कर रही थी। काश मैंने उस समय माँ से बात कर ली होती, भला दो मिनट में मेरा क्या नुकसान हो जाता। मेरी पत्नी तो एक अच्छी बहू बन गई पर मैं अच्छा बेटा नहीं बन पाया।

सोचते-सोचते मुझे नींद आ गई। सुबह जब उठा तो देखा निशा रसोई में थी। बच्चे स्कूल के लिए तैयार हो चुके थे। जाते हुए वो अपनी मम्मी को बाय करके बाहर जाने लगे, तभी मैंने उन दोनों से कहा,

“मैं भी तो खड़ा हूँ। मुझे बाय क्यों नहीं किया।”

दोनों बच्चे ठिठक कर खड़े रह गए। उन्हें लगा कि मैं उन्हें डाँटूँग। पर मैं उनके पास आया और उन्हें गले लगाते हुए बोला,

“चलो, आज मैं तुम्हें स्कूल छोड़कर आता हूँ अपनी कार से।”

दोनों आश्चर्य से एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे, पर प्रसन्न थे। ये उनके लिए सुखद था और निशा के लिए भी। पर मुझे अब समझ में आ गया था कि पैसों के साथ परिवार भी आवश्यक है।

  1. माँ का प्रेम और त्याग अनमोल होता है:
    एक माँ अपने बच्चों के लिए हर कठिनाई सहती है, लेकिन बच्चे अक्सर अपनी व्यस्तता में उन्हें अनदेखा कर देते हैं। हमें अपने माता-पिता की अहमियत उनके जीवन में रहते हुए समझनी चाहिए।
  2. रिश्तों को समय देना ज़रूरी है:
    पैसा और करियर ज़रूरी हैं, लेकिन परिवार के बिना सब कुछ अधूरा है। हमें अपनों को समय देना चाहिए और यह समझना चाहिए कि भावनात्मक जुड़ाव ही असली खुशी लाता है।
  3. एक माँ कभी अपने बच्चे का साथ नहीं छोड़ती:
    चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों, माँ हमेशा अपने बच्चे के साथ खड़ी रहती है। हमें भी अपने माता-पिता के प्रति वही समर्पण और प्रेम दिखाना चाहिए।
  4. समय रहते अपनों की कद्र करें:
    जब तक माँ जीवित थी, तब तक उसकी बातों को अनदेखा किया गया, लेकिन जब वह चली गई, तो उसकी कमी महसूस हुई। इसलिए, हमें अपने माता-पिता और परिवार को उनकी उपस्थिति में ही सम्मान और प्यार देना चाहिए।
    निष्कर्ष:यह कहानी हमें सिखाती है कि परिवार सबसे महत्वपूर्ण होता है। माँ-बाप के बिना पैसा और सफलता अधूरी होती है। इसलिए, अपने प्रियजनों को उनकी मौजूदगी में ही प्यार दें, न कि तब जब वे आपकी ज़िंदगी से चले जाएँ।

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